मीराबाई जोधपुर के पृसिद्ध महाराज राव जोधा जी के सुपुत्र राव दूदा जी की पौत्री थी। मीराबाई का जन्म 1498 कुड़की गांव मारवाड़ में हुआ था। बचपन से ही मीरा बाई को श्री कृष्ण से अनन्य प्रेम था। लडकपन मे चार-पांच 5 वर्ष की आयु मे ही मीरा की मां की मृत्यु हुई और मेरा अपने बाबा राव दूदा जी के घर रहने लगी उनकी संगत ही मीरा में भी भगवद् भक्ति बढ़ती ही रही। जब मीरा लगभग 14 वर्ष की हुई तब का विवाह मेवाड़ के विख्यात राणा सांगा के बड़े सुपुत्र कुंवर भोजराज से हुआ। शादी के साथ 8 वर्ष बाद ही इनके पति का देहांत हो गया युवावस्था में विधवा मीरा गहन शोक में डूब कर
शनैः शनैः कृष्णनुरागिनी बन गई। इसके बाद तो मीरा लोक लज्जा त्याग कर केवल साधु संगति एवं भगवद भक्ति में रहने लगी ।अब तो वे साधु संतों के बीच मंदिरों में पांव में घुंघरू बांधकर नाचने भी लगी। उनके कीर्ती के फैलते सत्संग में काफी लोग की भीड़ आने लगी। इन सबसे महाराणा रत्न सिंह के भाई शासक विक्रमाजीत सिंह वो चिढ़ने लगे थे ।और उन्हें राजघराने की मर्यादा को भंग देख कर मीरा बाई को अनेक कष्ट देना आरंभ कर दिया। उन्होंने मीरा को विष का प्याला भेजा सर्प और सूली भी भेजी थी। इन कष्टो और संकटों से सकुशल मीरा पाऱ उतर गई। उनके चाचा राव वीरमदेव जी ने मुझे अपने मेड़ता में बुला लिया ।पर अव्यवस्था से मेड़ता के बुरे दिन आ गए। और जोधपुर के राव मालदेव ने राव वीरमदेव जी का मेड़ता छीन लिया मीरा मेड़ता से तीर्थयात्रा करते हुए बृंदावन पहुंच गई ।
मीरा सगुण धारा की महत्वपूर्ण भक्त कवयित्री हैं। कृष्ण की उपासना होने के कारण उनकी कविता में सगुण भक्ति मुख्य रूप से मौजूद है। लेकिन निर्गुण भक्ति का प्रभाव भी मिलता है। संत कबीर रैदास उनके गुरु माने जाते हैं। बचपन से ही उनके मन में कृष्ण भक्ति की भावना जन्म ले चुकी थी। इसलिए कृष्ण को ही अपना आराध्य और पति मानती रही। उन्होंने लोक लाज और कुल की मर्यादा के नाम पर लगाए गए सामाजिक और वैचारिक बंधनो का हमेशा विरोध किया। पर्दा प्रथा का भी पालन नहीं किया तथा मंदिर में सार्वजनिक रूप से नाचने गाने में ही कभी हिचक महसूस नहीं की। मीरा मानती थीं कि महापुरुषों के साथ संवाद से ज्ञान प्राप्त होता है और ज्ञान से मुक्ति मिलती है। अपनी इन्हीं मान्यताओं को लेकर दृढ़ निश्चयी थी। निंदा या बंदगी उनको अपने पथ से विचलित नहीं कर पाई। जिस पर विश्वास किया उस पर अमल किया। इस अर्थ में उस युग में जहां रूढ़ियों में ग्रस्त समाज का दबदबा था, वहां मीरा स्त्री मुक्ति की आवाज बनकर उभरीं।
मीरा की मृत्यु सन 1546 में हुई।
No comments:
Post a Comment